संस्कृति और विरासत
सामाजिक व्यवस्था
जनपद नैनीताल की संस्कृति एवं विरासत बहुत समृद्ध है । जनपद के विभिन्न शहरों, कस्बों एवं गांवों में सभी सम्प्रदाय के लोग मिल जुल कर रहते हैं । जिले की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी हिंदू है जबकि शेष लोग सिक्ख, मुसलिम, क्रिसचन, बौद्ध आदि धर्मों को मानने वाले हैं । जिले में निवास करने वाले अधिकतर लोग कुमाऊंनी परम्परा को मानने वाले हैं ।
यहॉ पर शादियॉ अधिकतर कुण्डली मिलाकर माता पिता द्वारा करायी जाती हैं । विवाह के मुख्य कार्य में गणेश पूजा, सुवाल पथाई, धुलिअर्ग, कन्या-दान, फेरे एवं विदाई है । पारम्परिक कुमाऊनी बारात यहॉ के प्रसिद्ध छोलिया नृत्य से जीबंत हो उठती है । छोलिया नृत्यकोंं के प्रमुख वाद्य यंत्रों में नगाड़ा, ढोल, दमुआ, रणसिंग, भेरी, हुड़का हैं तथा नृत्यक नृत्य में तलवार एवं ढाल का प्रयोग करते हैं । लेकिन वर्तमान में लोगों को आधुनिक संगीत पर बैण्ड बाजे के साथ नृत्य करते हुए भी देखा जा सकता है ।
कुमाऊंनी व्यंजन
पारम्परिक कुमाऊंनी व्यंजन बहुत पौष्टिक और बनाने में सरल होता है। इनमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री यहॉ पर सुगमता से उपलब्ध रहती है । यहॉ पर लोग आम तौर पर चावल ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन गेहूं, मडुवा, झिंगोरा, मक्का एवं अन्य आनाज का उपयोग भी प्रचुर मात्रा में किया जाता है । दालों में लोग पहाडी दालें गहत, उडद, भट्ट, मसूर, रैस, सोयाबीन इत्यादि को प्राथमिकता देते हैं । यहॉ के खाने में मांसाहारी भोजन का भी बहुत प्रयोग किया जाता है ।
किसी भी शुभ अवसर पर बनने वाले भोजन में खीर, सिंघल, पूरी, पुआ, बडा, पालक का कापा, रायता, खटाई शामिल रहता है । ठेठ कुमाऊनी व्यंजनों में भट्ट दाल से बना चुडकाणी एवं भट्टिया, गहत के डुबके, मट्ठा की झोली, गाबे एवं सिसौने की सब्जी, पिनालू की सब्जी आदि प्रसिद्ध हैं । शहरी क्षेत्रों में खाने के होटल सामान्य भोजन के साथ साथ दक्षिण भारतीय एवं चाईनीज व्यंजन परोसे जाते हैं । बहुत से लोग मछली खाना भी पसंद करते हैं, इनमें थारू, बुक्शा एवं बंगाली लोग प्रमुख हैं ।
मेले एवं त्यौहार
फसलों की कटाई के पश्चात आम तौर पर लोग आराम एवं खुशियां मनाना चाहते हैं, इन्ही खुशियोंं से मेले एवं त्यौहारों की उत्पत्ति होती है । सूर्य के एक राशि से दूसरे राशि में संचरण को संक्रांति के रूप में जाना जाता है । कुमाऊं में प्रत्येक संक्रान्ति को कुछ ना कुछ पर्व मनाया जाता है । इन संक्रांतियों में मुख्य रूप से फूलसंंक्राॅन्ति यानि फूलदेई ,हरेला, उत्तायणी की संक्रॉन्ति यानि घुघुतिया,खतडुवा एवं घीं संक्रॉन्ति प्रमुख हैं । अन्य प्रमुख त्यौहारों में दीपावली, दशहरा, होली, रक्षाबंधन, बसंत पंचमी, शिवरात्रि, राम नवमी, जन्माष्टमी एवं नंदाष्टमी प्रमुख हैं ।
इन अवसर पर कुछ स्थानों पर मेलों का आयोजन किया जाता है। रानीबाग के पास चित्राशीला में उत्तरायणी मेला मकर संक्रांति दिवस पर मनाया जाता है (लगभग 14 जनवरी). कुमाऊँनी लोग उत्तरायणी के दिन पर कौवे को “काले कौवा काले घुघुति बड़ा खाले ले” से पुकारते एवं घुघुते खिलाते हैं । मई के महीने में बुद्ध पूर्णिमा दिवस पर , बुधनस्थली के पास उत्सव होता है । जबकि भीमताल में 16 और 17 जुलाई को हरेला मेला को लगता है। बैशाख पूर्णिमा दिवस पर लोकमताल में मेला लगता है जबकि कैंची धाम का सुप्रसिद्ध मेला 15 जून को आयोजित किया जाता है। बैशाख के अंतिम सोमवार को काकडीघाट में सोमनाथ मेला लगाया जाता है, नवंबर के महीने में गार्जिया मंदिर में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर बडे उत्सव का आयोजन होता है । जिले में पूर्ण भक्ति के साथ नंदा देवी मेला मनाया जाता है । यह मेला नैनादेवी मंदिर, नैनीताल और भवाली में आयोजित किया जाता है । कुमाऊँनी लोग सितंबर या अक्टूबर की शुरुआत में श्रद्धा का पखवाडा मनाते हैं और पूर्वजों को याद करते हैं ।
जीवन शैली
सभी शुभ अवसरों पर तिलक जो परिष्कृत हल्दी से बना होता है को अक्षत,पिठ्या के साथ को माथे पर लगाया जाता है। गांव की महिलाओं को एक लंबा पिठ्या लगाती हैं, जोकि नाक के ऊपर से माथे तक होता है। बुरी आत्माओं को दूर करने के लिए बच्चों के माथे पर एक काला टीका बनाया जाता है।
शिष्टाचार मुलाकाते मंगलवार एवं शनिवार को छोड कर अन्य दिनों में की जाती हैं । शोक व्यक्त करने के लिए प्रायः मंगलवार एवं शनिवार को ही जाया जाता है । किसी बीमार व्यक्ति को देखने के लिए मंगलवार, बृहस्पतिवार एवं शनिवार को नहीं जाते हैं । महिलायें अपनी माताजी के पास बृहस्पतिवार को नहीं जातीं है । बडे बुजुर्गों का पैर छूकर अभिवादन किया जाता है, जिसका जवाब वह ‘चिरंजीवी भव’ या ‘सौभाग्यवती भव’ से देते हैं । अन्य लोगों का अभिवादन नमस्कार से किया जाता है ।
विवाहित महिलायें अपने माथे पर इंगूर अथवा सिंदूर लगाती हैं, जोकि सुहाग का प्रतीक भी माना जाता है । विशेष अवसरों पर विवाहित महिलायें नाक में बडी सी नथ पहनती हैं । महिलायें गले में सोने का हार पहनती हैं लेकिन गरीब महिलायें चॉदी से बना हुआ हार जिसे ह्सुली कहा जाता है, पहनती हैं । जहां तक सामान्य पोशाक का संबंध है महिलाओं को साड़ी पहनते हैं लेकिन घाघरा-पिछोडा की परंपरागत पोशाक भी पहनना चाहती । हर महिला इसे औपचारिक अवसरों के लिए तैयार रखती है ।
पहाडों के लोग पत्थर या ईंटों से बने घरों में रहते हैं । कुछ पुराने मकान लकड़ी के भी बने है, परंतु अतीत में लकड़ी पर जो नक्काशी की जाती थी वह अब बहुत दुर्लभ हैं। पहाड़ी क्षेत्र में, छतें ढलान वाली होते है जिनका निर्नाण पत्थर, टिन या स्लेट की मदद से किया जाता है। गांवों में, मनुष्य पहली मंजिल में रहते हैं जबकि जानवर भूतल पर सहते हैं जिसे गोठ कहा जाता है । अतीत में यह सब मकान एक दूसरे से मिले हुए एक साथ बने होते थे, जिन्हें बाखुली के नाम से जाना जाता था परंतु अब मकान अलग अलग बनाये जाते हैं ।
पहाड़ी मंदिरों के स्थापत्य में कला और संस्कृति का गहरा मिश्रण दिखायी देता है । मूर्तिकला मंदिर की स्थापना के समय के साथ बदलता रहता है। पूजा करने का तरीका भी कई पहलुओं में मैदानी इलाकों से अलग होता है। गॉव में ये मंदिर सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में कार्य करते हैं। पहाड के लोग स्थानीय देवताओं को खुश करने के लिए जगारों का आयोजन करते हैं। कुछ मुख्य स्थानीय देवताओं में गोलू , भोलानाथ, सैम , ऐडी, गंगनाथ इत्यादि शामिल हैं ।
सांस्कृतिक परम्पराएँ
ऐतिहासिक काल से आंचल के कपड़ों पर रंगीन चित्रण की परंपरा एक अद्वितीय कुमाऊनी परंपरा है । सभी अनुष्ठान समारोह में महिलाएं पिछौड़ा पहनती हैं, जो रंगवाली के रूप में भी जाना जाता है। यह मलमल का कपड़ा पीले रंग का होता है, जोकि तीन मीटर लंबा और डेढ मीटर चौड़ा होता है ,जिसमें लकडी की मुहर से लाल रंग के गोल डिजाइन बनाये जाते है। इसके केंद्र में स्वास्तिक, सूरज, चाँद, घंटी और शंख की आकृतियॉ होती है।
दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अल्पना) बनाती है। इसके लिए घर, ऑंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूमिलअर्ध्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत गाँव की महिलाएँ स्वयं बनाती है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकारे बनाए जाते है। ये डिकारे भगवान के प्रतीक माने जाते है। इनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग मिट्टी की अच्छी-अच्छी मूर्तियाँ (डिकारे) बना लेते हैं।